कविता : स्त्री जब लेती है निर्णय अकेले चलने का


अस्तित्वहीन हो जाती है स्त्री
जब लेती है निर्णय
अकेले चलने का।

उसका अर्जित अर्थ,
प्रबल सामर्थ्य भी
निष्प्राय हो जाता है
सामाजिक सरोकार के आगे।

तंजों के तीव्र वारों से
स्वयं को सुरक्षित रखने को
बंद कर लेती हो
चक्षु, मुख और कर्ण

फिर भी
खुली तिजोरी प्रतीत होती हो
नर पशुओं को
जो लूट लेना चाहते हैं
तुम्हारी अस्मिता।

खंडित होने से
बचा लेती हो
अपना आत्मविश्वास
इन नरगिद्धों की
लोलुप दृष्टि से।

झुलसने नहीं देती
अपने वर्तमान
और भविष्य को
अभद्र चर्चा के
गर्म बाजारों की
तपिश से।

एकाकी जीवन के साथ
चढ़ तो जाती हो
सफलता की सीढ़ियां
पर तुच्छ, ओछे और
असंस्कारी अभियोग के
पदक के साथ।

गड़ जाती हो
उन आंखों में
जो लता समझ
तुम्हें परजीवी की
संज्ञा देते हैं।

निर्लज्ज कहलाती हो
जब शालीनता ,नम्रता,
लज्जा रूपी
जबरन पहनाए गए
गहनों को उतार फेंक
प्रतिवाद करती हो।

हर वार से बचती
जब आगे बढ़ती जाती हो
अंत में तुम्हें पराजित करने को
दुर्जन निकालते हैं
चारित्रिक लांछन का
भौंडा हथियार...

डगमगाना नहीं
इस वार से भी।
सृष्टि की दूसरी रचना तुम
अविरल पवित्र गंगा सी
बहती जाना

..जब जीवन है तुम्हारा,
तो नियम और निर्णय भी होंगें तुम्हारे अपने।
(तस्वीर प्रतीकात्मक AKSWRITES से साभार) 

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