अच्छा लगता है,
जब वो माहवारी के चार दिन पहले से ही
सवाल करने लग जाते हैं।
अच्छा लगता है,
जब वो हर बार मुझे
पहली बार की तरह समझाते हैं।
अच्छा लगता है,
जब वो मुझे पैड बदलने की
याद दिलाते हैं।
अच्छा लगता है,
जब हर बार ‘इन्फ़ेक्शन ना हो जाए’
की
चिंता जताते हैं।
अच्छा लगता है,
जब पैड मँगाती हूँ मैं
..और साथ में वो
चोकलेट और क्रीम रोल लेकर आते हैं।
अच्छा लगता है,
जब रास्ते चलते वो
मेरे गंदे कपड़े छुपाते हैं।
अच्छा लगता है,
पूरे बिस्तर पर फैलकर सोने वाले
वो पाँच दिन कोना पकड़ कर लेट जाते हैं।
अच्छा लगता है,
जब वो गंदे पैड उठाकर फेकने में
नहीं सकुचाते हैं।
दर्द के कारण
जब कभी रो पड़ती हूँ,
वो भी रुआंसे हो जाते हैं।
अच्छा लगता है,
जब मेरा उतरा हुआ मुँह देखकर
ख़ुद भी दुखी हो जाते हैं।
अच्छा लगता है,
जब वो हर हुकुम मानने को तैयार
..और हम ऑर्डर फ़रमाते हैं।
अच्छा लगता है,
घर आते ही ‘दर्द कम हुआ?’
पूछने में लग जाते हैं।
अच्छा लगता है,
जब कभी सिकाई के लिए
वो पानी ख़ुद गर्म करके लाते हैं।
अच्छा लगता है,
मेरे उन पाँच दिन में
पूरा साथ निभाते हैं।
वैलेंटाइन सप्ताह की ज़रूरत नहीं मुझे
क्यूँ कि वो पाँच दिन हर महीने आते हैं।
..और हर बार वो मुझे उतना ही
ख़ास महसूस कराते हैं।
हर महिला को ज़रूरत है,
इस प्यार की लेकिन
पुरुष क्यूँ सकूचाते हैं?
(तस्वीर प्रतीकात्मक
ग्लैमर से साभार)