कहीं पढ़ा भी
था और एक फ़िल्म में भी देखी थी। प्रेमिका अपने प्रेमी से कहती है, “तुम मुझे
कितना प्यार करते हो?” प्रेमी
बोला, “अपनी जान तक दे सकता हूँ,
तुम्हारे लिए किसी की भी जान तक ले सकता हूँ।” प्रेमिका बोली, “चल झूठे।” प्रेमी बोला, “परीक्षा ले लो।” प्रेमिका ने कहा, “अपनी माँ का दिल ला सकते हो मेरे लिए?”
प्रेमी ने एक पल सोचा और चल पड़ा घर की तरफ़। माँ को मारा और सीने से दिल निकाल कर चल पड़ा अपनी प्रेमिका की ओर। रास्ते में उसका पैर फ़िसला वो गिरा, उसके हाथ से माँ का दिल भी उछला। दिल से आवाज़ आई, “बेटे तुम ठीक हो? तुम्हे चोट तो नही लगी?”
बेटा ये सुनकर सिसक उठा। उसके मन में वास्तविक प्रेम का फूल खिल उठा, ह्रदय में पछतावे की, प्रायश्चित की पैदा हुई।
क्या है ये? प्रेमी-प्रेमिका का शर्त से भरा, परीक्षा से भरा प्रेम? माँ का परवाह करता निस्वार्थ दिल का प्रेम? कौन सर्वश्रेष्ठ?
प्रेम में व्यापारिक दिमाग नही होता, प्रेम में लाभ-हानि की सोच नही होती, प्रेम का गणित सिर्फ़ प्रेम है। प्रेम का कोई बही-खाता नही होता। प्रेम नशा है, इस नशे के दायरे में देश-भक्ति भी है, धर्म-भक्ति भी है और प्रतीक-भक्ति भी है। मगर इसमें अगर दूसरो के प्रति नफ़रत पैदा हो, तो ये प्रेम नही। प्रेम सबसे प्रेम करता है।
सनातन काल से प्रेम पर जाति-धर्म की सलाखे है। दुःख होता है कि इक्कीसवी सदी के वैज्ञानिक युग में भी ये ज़ंजीरे पिघली नही है, टूटी नही है। इज्जत का कत्लेआम जारी है, लव-जिहाद का पागलपन प्रेमियों की सांसे छीन रहा है। ये उस देश का हाल है, जहाँ राधा-कृष्ण के प्रेम की मुर्तिया मन्दिरों में है, उनकी पूजा होती है, खजुराहो की मुर्तिया है, जिनको मन्दिर माना जाता है। शिवलिंग को कल्याणकारी और पवित्र समझा जाता है। एक तरफ़ प्रेम के नाम पर हिसा दूसरी तरफ़ पूजा का कर्मकांड। आखिर ये विसंगति, ये दौगलापन क्यों?
बहुत कम लोग सत्य का सामना करते है, जिसे प्रेम समझा जाता है वह निन्नानवे प्रतिशत शारीरिक है, देह से देह का मिलन। असली चीज दोस्ती है। मगर तथाकथित प्रेम दोस्ती का दुश्मन है। न पति चाहता है और न पत्नी चाहती है कि मेरा पार्टनर किसी से मैत्री करे। दैहिक प्रेम के कारण ये छोटापन पैदा होता है। प्रेम अगर दोस्ती की तरफ़ ले जाए, तो इसको वास्तविक प्रेम कहा जा सकता है। अगर ये दोस्ती की तरफ़ नही ले जाता, तो फ़िर ये वासना है, देहसुख है, प्रेम नही।
कुछ समय पहले पश्चिम की एक पिक्चर देखी थी, उसमे एक दृश्य था कि बेटी अपने माँ-बाप से कहती है कि मैं अपने मित्र विक्टर के साथ जा रही हूँ। पिता पूछता है, सुरक्षा के इंतजाम है? बेटी बोलती है, हाँ पापा और चली जाती है। इसके बाद पिता अपनी पत्नी से कहता है कि डार्लिंग मैं तुम्हारी भी दोस्त पामेला के घर जा रहा हूँ, रात्रि में वही विश्राम करूंगा। पत्नी मुस्कराते हुए कहती है जाओ।
अब इस दृश्य में भारतीय संस्कार नही थे, जो हमे सिखलाए, समझाए जाते है। खैर! कानून आसमान से नही उतरते। संस्कार, रीति-रिवाज अनुभवजन्य हो, तो ठीक; पुराण-पोथियों से पढ़े बेकार। समय शास्त्रों से आगे निकल गया है। आज सूरज, चाँद, सितारों की हकीकत सब जानते है।
प्रेमी ने एक पल सोचा और चल पड़ा घर की तरफ़। माँ को मारा और सीने से दिल निकाल कर चल पड़ा अपनी प्रेमिका की ओर। रास्ते में उसका पैर फ़िसला वो गिरा, उसके हाथ से माँ का दिल भी उछला। दिल से आवाज़ आई, “बेटे तुम ठीक हो? तुम्हे चोट तो नही लगी?”
बेटा ये सुनकर सिसक उठा। उसके मन में वास्तविक प्रेम का फूल खिल उठा, ह्रदय में पछतावे की, प्रायश्चित की पैदा हुई।
क्या है ये? प्रेमी-प्रेमिका का शर्त से भरा, परीक्षा से भरा प्रेम? माँ का परवाह करता निस्वार्थ दिल का प्रेम? कौन सर्वश्रेष्ठ?
प्रेम में व्यापारिक दिमाग नही होता, प्रेम में लाभ-हानि की सोच नही होती, प्रेम का गणित सिर्फ़ प्रेम है। प्रेम का कोई बही-खाता नही होता। प्रेम नशा है, इस नशे के दायरे में देश-भक्ति भी है, धर्म-भक्ति भी है और प्रतीक-भक्ति भी है। मगर इसमें अगर दूसरो के प्रति नफ़रत पैदा हो, तो ये प्रेम नही। प्रेम सबसे प्रेम करता है।
सनातन काल से प्रेम पर जाति-धर्म की सलाखे है। दुःख होता है कि इक्कीसवी सदी के वैज्ञानिक युग में भी ये ज़ंजीरे पिघली नही है, टूटी नही है। इज्जत का कत्लेआम जारी है, लव-जिहाद का पागलपन प्रेमियों की सांसे छीन रहा है। ये उस देश का हाल है, जहाँ राधा-कृष्ण के प्रेम की मुर्तिया मन्दिरों में है, उनकी पूजा होती है, खजुराहो की मुर्तिया है, जिनको मन्दिर माना जाता है। शिवलिंग को कल्याणकारी और पवित्र समझा जाता है। एक तरफ़ प्रेम के नाम पर हिसा दूसरी तरफ़ पूजा का कर्मकांड। आखिर ये विसंगति, ये दौगलापन क्यों?
बहुत कम लोग सत्य का सामना करते है, जिसे प्रेम समझा जाता है वह निन्नानवे प्रतिशत शारीरिक है, देह से देह का मिलन। असली चीज दोस्ती है। मगर तथाकथित प्रेम दोस्ती का दुश्मन है। न पति चाहता है और न पत्नी चाहती है कि मेरा पार्टनर किसी से मैत्री करे। दैहिक प्रेम के कारण ये छोटापन पैदा होता है। प्रेम अगर दोस्ती की तरफ़ ले जाए, तो इसको वास्तविक प्रेम कहा जा सकता है। अगर ये दोस्ती की तरफ़ नही ले जाता, तो फ़िर ये वासना है, देहसुख है, प्रेम नही।
कुछ समय पहले पश्चिम की एक पिक्चर देखी थी, उसमे एक दृश्य था कि बेटी अपने माँ-बाप से कहती है कि मैं अपने मित्र विक्टर के साथ जा रही हूँ। पिता पूछता है, सुरक्षा के इंतजाम है? बेटी बोलती है, हाँ पापा और चली जाती है। इसके बाद पिता अपनी पत्नी से कहता है कि डार्लिंग मैं तुम्हारी भी दोस्त पामेला के घर जा रहा हूँ, रात्रि में वही विश्राम करूंगा। पत्नी मुस्कराते हुए कहती है जाओ।
अब इस दृश्य में भारतीय संस्कार नही थे, जो हमे सिखलाए, समझाए जाते है। खैर! कानून आसमान से नही उतरते। संस्कार, रीति-रिवाज अनुभवजन्य हो, तो ठीक; पुराण-पोथियों से पढ़े बेकार। समय शास्त्रों से आगे निकल गया है। आज सूरज, चाँद, सितारों की हकीकत सब जानते है।
प्रेम में देह की भी अहमियत है, दिल की भी और मानवीय दिमाग की भी। दिल, दिमाग और देह के संगम से मन बादलो की तरह बरस उठता है, मन के खेत खिल जाते है।
प्रेम परवाह करता है, सती नही बनाता, जौहर नही कराता। नारी न देवी बने, न दासी; सिर्फ़ दोस्त बने, सहयोगी बने। पुरुष भी परमात्मा और देवता बनने के ख्वाब न देखे और न चेष्टा ही करे।