सवाल
महिला के नीचे गिरने का नहीं है, सवाल है समाज
कैसे इतना नीचे गिर सकता है कि किसी की मज़बूरी के बदले उसका जिस्म नोंच खाये?
सवाल यह है कि क्या हम हवस के हाथों इतने मजबूर हैं कि हम यह भी
नहीं सोचते कि वह बेटी, बहन या माँ है?
सवाल यह है कि समाज किसी महिला कि मज़बूरी का हल सिर्फ उसके जिस्म में क्यों देखता है? और सबसे बड़ी बात है हम जिस्म-फरोशी को उन पुरुषो के चरित्र का पैमाना क्यों नहीं बनाते हैं ?
सवाल यह है कि समाज किसी महिला कि मज़बूरी का हल सिर्फ उसके जिस्म में क्यों देखता है? और सबसे बड़ी बात है हम जिस्म-फरोशी को उन पुरुषो के चरित्र का पैमाना क्यों नहीं बनाते हैं ?
दिल्ली
के कई क्लब हाउस में आपको यह नज़ारा देखने को मिल जायेगा,
महँगी कार से उतर कर कॉफ़ी हाउस में बैठकर गरीबों कि स्थिति पर चिंता
जताना और फिर अपने आलिशान बंगलो में गुम हो जाना। जितना मुश्किल है इन लोगों के लिए
गरीबी को समझाना, उतना ही मुश्किल है हम जैसों के लिए
किसी की मज़बूरी को समझाना।
इसमें शौक का तो सवाल ही नहीं है, मज़बूरी और वह भी ऐसी जिसका हल समाज सिर्फ उसके जिस्म का सौदा करके ही देता
है।
सोचने में भी तकलीफ होती है कि कितनी मजबूर रही होगी वह महिला कि
जो किसी अनजान को अपना जिस्म नोचने-खसोटने कि इज़ाज़त दे देती है,
उसे अपने जिस्म पर रेंगने देती है। किस तरह वह इन वासना की भूखी
आँखों का सामना कर पाती है, किस तरह जवान मांस के इन भूखे
पशुओं से निबट पाती है।
एक सिहरन सी पैदा होती है, महिलाओं
की बेबसी पर और शर्म आती है, अपनी लाचारी पर।