क्या समाज में ब्याह नामक ‘जंजीर’ लड़की के लिए अनिवार्य है?


बेटी के जवान होते ही पिता की औकात (औकात अपनी चादर की) के हिसाब से लड़का ढूंढने लगना। लड़की के गुण, उसकी पढ़ाई-लिखाई, उसका व्यवहार; ये सब बातें कोई मायने नहीं रखतीं।

सबसे पहले लड़की के बाप की औकात देखी जाती है। औकात चार पहिए की या चार पहिए में भी लग्जरी कार की, प्लॉट या मकान की, सामान और कैश की। फिर शुरू होता है एक अनकही यातना का सफर।

पिता को एक ग्लास पानी देते हुए, शाम को थके हारे घर लौटे हुए पिता से, मां का पानी देते हुए "कुछ बात बनी" पूछना। ..और बड़ी उम्मीदों से पिता के चेहरे को ताकना। लेकिन पिता का थका हुआ "नहीं" और धीरे से "ना" में सिर हिलाना, मेरे होने पर मुझे शर्मिंदा कर जाता है।

मैं पढ़ना चाहती हूं, कुछ बनना चाहती हूं, ‌पर मोहल्ले की लड़कियों की शादी हो जाने की वजह से मेरी शादी का माता पिता पर जबरदस्त दबाव है। मां ने खाना बनाने के सभी गुण, जो उनमें थे, मुझ में हस्तांतरित कर दिए थे। ‌‌मेरे ना चाहने के बावजूद भी आजकल, शाम को रोज मुझे हॉबी कोर्स के लिए भेज रही हैं। उनकी मनुहार और थकी हुई नजरों को चाह कर भी मना नहीं कर सकी।

लेकिन आज पापा खुश थे, पर माथे पर चिंता की रेखाएं भी थीं। मां के पूछने पर बताया कि लड़का टीचर है। घर है, दो बहने हैं। लेकिन शादी के लिए अभी सामान नहीं मांगा, पर कैश अधिक मांगा है..।

“..कितना?¿ मां का शंकित स्वर सुनाई दिया। “दस..” पिता का बिखरता स्वर लुढ़क कर, मेरे कानों तक भी आ पहुंचा। दरवाजे के पीछे खड़ी, मैं अपना सिर दरवाजे पर हताश हो, टिका दी। मां को आहट लग गई शायद मेरी। ..तुरंत ही बाद बदल दी। सब हो जाएगा। आप खाना खा लीजिए।

नियत समय आया। मैं भी यंत्रवत, हर रस्म निभाती गई। कुछ अलग तरह के लोगों का आना जाना रहा कुछ दिन। मेरे आस-पास होने पर सन्नाटा पसर जाता था।

जैसे-तैसे शादी हुई। मां पापा बहुत खुश थे, पर कुछ और भी था आंखों में। ..जो मेरी नज़र से नज़र मिलते ही छुपा लेते थे।

शादी के चार दिन बाद पग-फेरे के लिए जाना था, पर मां पापा ही आ गये। बहुत-सा सामान लेकर। बोले, हम चार धाम जा रहे हैं, इसलिए हम ही आ गये। बहुत दिनों बाद लौटेंगे। मां की आंखें मां की बात से मेल नहीं खा रही थी। मैंने अकेले में कसम भी दी कि क्या छुपा रही हो!! पर बोली कुछ नहीं। बस कसके गले लगा ली और बोली, "इस रिश्ते को आखरी दम तक निभाना।”

दो साल हो गए। दो बार गर्भवती हुई, पर दोनों बार गर्भपात करवा दिया। जबरन.. क्यूंकि पहला बेटा चाहिए था। एक दिन मायके की पडोस में रहने वाली मृदुला मिली। मां पापा के लिए पूछा, तो बताया, वे तो तेरी शादी के चार दिन बाद ही हरिद्वार चले गए थे ..घर बेच कर। अब वहीं किसी आश्रम में रहते हैं। ..तुझे नहीं पता?? कानों में लगा पिघला हुआ शीशा डाल दिया किसी ने।

सबकुछ चलचित्र की तरह घूम गया। ..दस लाख ..आंखों की उदासी ..मुझे घर न बुलाना ..फिर कभी खुद भी न आना ..महीनों फोन न करना ..मां का रिश्ते को आखरी दम तक निभाने के लिए कहना ..सबकुछ।

..और यहां!!!!

दिन भर सबकी आवाज पर चकरघिन्नी बने रहना। पति का शरीर के हर अंग पर, जबरन अधिकार जमाना। शरीर के नीले निशानों को मेक-अप से छुपाना। मन के घावों को बाथरूम में पानी संग बहाना..।

..किस के लिए???

क्योंकि समाज में ब्याह नामक जंजीर अनिवार्य है, लड़की के लिए। किस्मत में सुख तो ठीक नहीं तो मरने तक रोज़ मरो।

सोचती हूँ, इतना पैसा उसकी पढ़ाई में या बिजनेस में खर्च करते, तो बेटी भी खुश रहती और मां पापा भी बुढ़ापे में किसी आश्रय में मौत का इंतजार न करते। क्या मिलता है, ऐसी शादियों से? क्या लड़की की शादी इतनी आवश्यक है?

नोट – ‘मैं’ शब्द हर उस लड़की के लिए है, जिसे कभी समाज के लिए, कभी मां-बाप के लिए, कभी भाई बहनों के लिए, शादी कर खुद को बलि के लिए प्रस्तुत करना होता है।

तस्वीर प्रतीकात्मक ALLO119 से साभार। 

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