कविता : भागी हुई लड़कियों के घर


वो लड़कियाँ जिनके घर छूट गये
जिन्होंने घर छोड़ दिया
या कहा जाए कि जो लडकियाँ भाग गई
व्यवस्थाओं में ढलने के इनकार के साथ
ऐसी लड़कियों को सूँघ-सूँघ कर खोजा गया
पृथ्वी के अंतिम छोर से भी
और दफ़न कर दिया
मिटटी में मिटटी की तरह
उनके भागने की वजह हर बार
प्रेम ही नहीं रहा
मगर हर बार बदनामी एक ही तरह की हुई
भागने में
ख़ैर जो लडकियाँ बच गई
हत्याओं और आत्महत्याओं के षडयंत्र के बावजूद भी
पृथ्वी की परतों में छिपी रहती है जीवित
अपनी खुद की ही जिम्मेदारी लिये
सुरक्षा सुनिश्चित करती हुई
उनके छूटे हुए घरों में
बिखरी पड़ी है उनकी जीवंत यादें
सभ्यताओं के अवशेषों की तरह

मगर घर के आंगन सूने हैं
उनके हाड-मांस के जीवन के बिना
घर की औरतें
चुपचाप छुपाती फिरती हैं
घर के सूनेपन को
अपने हृदय की गहराइयों में
संहार की उफनती हुई भावनाओं के डर से
घर के पुरुष, बार-बार भुलाते हैं उनके द्वारा
प्यार से पुकारे हुए सम्बोधनों को
जो अभी भी घर किये हुए
मन के किसी कौने में

घर के पुरुष बनाए रखते हैं चट्टान से
अपने ज़िन्दा इंसानी दिलों को
झूठे सामूहिक प्रदर्शन के लिए
पड़ोसियों की चुगलियों में अभी भी ताज़ा हैं
उन जवान लडकियों के शरीर,
उनके दुस्साहस, उनकी चुनौतियाँ
पड़ोसी याद दिला देते हैं
अक्सर आंखों से ही
वो तमाम चेतावनियाँ
जो वो हर बार देते थे
लड़कियों के परिजनों को
पृथ्वी की परतों में जिंदा लडकियाँ
याद करती हैं छूटी हुई जगह को
उन जगहों में जिए जा चुके जीवन को
सम्हाले हुए हैं अपने सुख-दुःख
धोखे, प्रेम, पीड़ाएँ
ऐसे ही जैसे सम्हालती हैं
औरतें कालन्तर से निरंतर
अनुराधा अनन्या की वाल से साभार 
(तस्वीर प्रतीकात्मक यंगिस्तान से साभार)

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