बुद्धि व चेतना सिर्फ मर्दज़ात के पास नहीं; मामला परवरिश और अवसर का है


चारदीवारी में औरत को क़ैद करके सिर्फ घर के कामकाज और बच्चों को ही संभालने पर नियमित रखने के बाद कहा जाता है कि औरत कम अक़्ल होती है। जल्द कन्फ्यूज हो जाती है, दूसरों की बातों में तुरंत आ जाती है। उसमें फैसला लेने की ताक़त कम होती है, उस पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता।

तात्पर्य यह है कि बुद्धि व चेतना कोई शरीर का हिस्सा नहीं, जो सिर्फ और सिर्फ मर्द ज़ात के साथ ही वजूद में आता है, बल्कि ये तो माहौल व तरबीयत का असर होता है और अधिक निखार अनुभवों से आता है।

लेकिन फिर भी जो इस बात से असहमत हों, तो एक प्रयोग कर लें। अपने बच्चों में लड़के की तरबीयत बिल्कुल उसी तरह करें, जैसे अपने समाज में लड़कियों की तरबीयत की जाती है। वैसे ही पाबंदियां उस पर भी लगाई जाएं। वैसे ही उनको एहसास दिलाया जाए कि तुम एक सहारे के बग़ैर अपूर्ण हो। शिक्षा व नौकरी से दूर रखा जाए। लड़कियों की तरह उस लड़के को भी कभी फैसला लेने का अधिकार न दिया जाए।

..और लड़की की तरबीयत बिल्कुल मौजूदा समाज के मुताबिक़ लड़के की तरह की जाए। उसे आत्मविश्वास दिलाएं, शिक्षा दिलाएं, नौकरी करने दें। जब वही लड़की समाज में अपना रोल अदा करेगी, तो हालात और अनुभव उसे मैच्योर बना देंगे। जबकि चारदीवारी में क़ैद लड़का इमैच्योर और कम अक़्ल से मशहूर हो जाएगा।

कम अक़्ल औरत नहीं, उनकी तरबीयत करने वाले लोग होते हैं। चाहे वो उनके पैरेंट्स हों या उनके टीचर। एक जॉब होल्डर औरत एक हाउस वाइफ से ज्यादा साहसिक और मैच्योर होती हैं।

लेकिन ये सब तब समझेंगे जब औरत को भी अपनी तरह का एक इंसान स्वीकार कर लेंगे। मर्द की तरह एक औरत का भी दिल चाहता है कि वह भी समाज में अपनी क्षमताएं मनवाए। अपने ख़्वाब पूरे करे। अपनी ज़िंदगी अपनी मर्जी से जिये जिस तरह मर्द जीते हैं।

लेकिन हक़ीक़त ये है कि आज भी औरत को बस अपना ग़ुलाम समझते हैं, जो दुनिया में सिर्फ मर्द का हुक्म मानने, उसकी सेवा करने, उसका दिल बहलाने और बच्चे पैदा करने आई है। उनके एहसासात उनके जज़्बात की कोई परवाह नहीं, बस मनोरंजन में कोई कमी न रहे।


तस्वीर LEXACOUNT.COM से साभार
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