Valentine's Day को लेकर अधिकांश हिन्दू-मुस्लिम संगठनों को क्या दिक्कत है?


कहानी यह है कि 14 फरवरी 270 को रोम के क्रूर सम्राट ने प्रेम पर बात करने, उसका समर्थन करने वाले एक पादरी जिसका नाम वेलेंटाइन था, उसको फांसी पर लटका दिया था। इस संत की याद में ही कुछ लोग उसे प्रेम दिवस की तरह मनाने लगे और यह सिलसिला सभी भौगोलिक सीमाओं को लाँघ कर पूरी दुनिया में फ़ैल गया।

इसके अतिरिक्त इसको बाज़ार ने अपने कमाई के निहितार्थ खूब बढ़ाया चढ़ाया। कार्ड, डॉल और तरह-तरह के गिफ्ट का चलन हो गया। भारत में इसे विश्वहिंदू परिषद्, शिव सेना, बजरंग दल आदि जैसे संगठनों ने भी इसे विरोध कर अधिक चर्चित और व्यापक बना दिया। अपनी संकीर्ण मानसिकता और झूठी संस्कृति को बचाने के असफल प्रयास में ये लोग आज के दिन को भगत सिंह की फांसी का दिन बताने तक का एक नियोजित षड़यंत्र करते हैं। कुछ लोग आज के दिन को माता-पिता दिवस के रूप में भी प्रचारित करने की कोशिश कर रहे हैं

आज ऐसे पोस्ट भी देखने में आ रहे हैं जिसमें पहला गुलाब ईश्वर को, दूसरा गुलाब माँ-बाप को तीसरा गुलाब अपने गुरु को और चौथा गुलाब अपने मित्रों को देने की बात की जा रही है। आप ध्यान दें, तो पाएंगे कि ये सभी गुलाबों वाला प्यार वैलेंटाइन्स डे को ही प्रकट होगा। दरअसल ये लोग प्रेम को लेकर कुंठित लोग हैं, जो जीवन में कभी प्रेम नहीं कर सके और यह कुंठा उन्हें अपने आसपास प्रेम पनपते देखना हीन भावना से ग्रस्त कर देता है।

चाहे बजरंगदल की बात हो, या इस्लामिक लबादे में ओढ़ा हुआ समाज। सभी इससे प्रभावित हैं। चूँकि सीधे-सीधे प्रेम का विरोध करना, अंतरजातीय प्रेम पर बहस करना आदि उनको संकीर्ण बना देगा, इसलिए वे संस्कृति के नाम पर, माता-पिता के नाम पर, शहीद भगत सिंह आदि के नाम पर भावनात्मक रूप से अपने अजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद करता है।

श्रीकृष्ण और राधा पता नहीं वास्तविक चरित्र हैं या कहानी, लेकिन समाज में उनके प्रेम को लेकर आम स्वीकृति है। लेकिन वही लोग प्रेम पर अपने बच्चों, बहनों आदि को मारना पीटना, गाली देना शुरू कर देंगे। कभी सच्चा प्रेम के नाम पर, तो कभी उसकी फ़िक्र के नाम पर। एक लड़का अपने प्रेम के लिए प्रयास तो करेगा, पर अपनी बहन को प्रेम करने की बात पर गुस्सा हो जायेगा। यह भारतीय समाज का डबल स्टैंडर्ड है, जिसको कोई कुरेदना नहीं चाहता, बस अन्दर ही अन्दर दबे रहने दिया जाता है।

दूसरी तरफ मुसलमानों के ठेकेदारों द्वारा जो कहने को तो आलिम और मुल्ले हैं, पर वे भी वैसी ही ग्रंथियों और कुंठाओं के शिकार हैं जिसकी ऊपर चर्चा की जा चुकी है। वे इस दिन को मनाने को हराम तक करार दे रहे हैं। पर वे कितने सफल होंगे, आपको पता है। युवा तो बहता पानी है, भला उन्हें कहाँ कोई रोक पायेगा। कुछ देर तक भले ही रोकने की कोशिश करने के भ्रम वो हैं। 

वो गाना है न, “दो प्यार करने वालों को जब जब दुनिया तड़पाएगी, मोहब्बत बढ़ती जाएगी” एकदम सटीक है।

वैसे लोग जो पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का रोना रोते हैं और भारतीय संस्कृति को बचाने की आड़ में अपनी कुंठा और सत्ता के लबादे में सामने आते हैं, उनका ध्वस्त होना, तय है। वे अपनी राजनीति को धर्म, जाति आदि के इर्द गिर्द ही बना के रखे हैं, प्रेम दिवस के रूप में उसे भी ‘वैलेंटाइन डे’ जैसा त्यौहार धक्का पहुंचाता है।

आप सोचिये जो समाज प्यार पर इतनी पाबन्दी लगाता है, उसे समाज में व्याप्त हिंसा, शोषण, भुखमरी, महंगाई आदि पर कोई परेशानी नहीं है। उसे न तो जाति आधारित शोषण से दिक्कत है, न ही दहेज़ जैसी कुरीतियों से। उसे दिक्कत है, तो बस प्रेम से। इसलिए बात को समझिये। प्रेम सिर्फ भावना की बात नहीं है, प्रेम की परिणति क्रांति, बदलाव और राजनीति में भी होती है। इसलिए कोई भी सत्ता चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक इसे नियंत्रित करना चाहता है।

शेषनाथ वर्णवाल
तस्वीर प्रतीकात्मक थाई बीपीएस से साभार
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