"ईसा मसीह को मैं सिर्फ एक धार्मिक महापुरुष के रूप में नहीं देख पाता।"

जैसी भावना होती है, प्रभु की मूरत भक्तों को वैसी ही दिखाई देती है। ईसा मसीह को मैं सिर्फ एक धार्मिक महापुरुष या मसीहा के रूप में नहीं देख पाता।

मुझे वे पाखंड और सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ आदि विद्रोही जैसे दिखते हैं और उनके वक्तव्यों के शब्द अंधकार में दहकते फूल जैसे। अमीरी या धन लिप्सा के प्रति उनका यह वक्तव्य मेरे लिए सर्वाधिक प्रिये है। और अदानी, अंबानियों जैसों के खिलाफ जो जनाक्रोश फूट पड़ा है, वैसे में उनके ये शब्द बेहद प्रासांगिक भी हैं।

वे शब्द हैं: .. किसी धनवान का परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा उंट का सूई के छिद्र में से निकल जाना ज्यादा सरल है।

आपने धनवानों के द्वारा दान पुण्य की महिमा और उनके द्वारा धर्मशाला और अनाथ आश्रम बनवान की बात तो सुनी होगी, लेकिन ऐसे पाखंडियों के खिलाफ उनके इस वक्तव्य पर गौर करें।

‘‘हे पाखंडी शास्त्रियों-फरीसियों, तुम पर हाय! तुम पोदीने, सौंफ और जीरे का दसवां अंश तो देते हो, परंतु व्यवस्था की गंभीर बातों अर्थात न्याय, दया और विश्वास की उपेक्षा करते हो।’’

‘‘तुम कटोरे और थाली को बाहर से मांजते हो, परंतु भीतर से वे हर प्रकार की लूट और असंयम से भरे हुए हैं।’’

तुम पर हाय! तुम चूने से पुती कबरो के समान हो। जो बाहर से तो सुंदर दिखाई देती हैं, परंतु भीतर मुर्दो की हड्डियां और सारी अशुद्धता से भरी हैं।’’

और जब मंदिर प्रांगण से बाहर निकलते ईसा को उनके शिष्यों ने मंदिर की भव्यता दिखायी तो उन्होंने कहा: .. मैं तुमसे सच कहता हूं, यहां एक पत्थर के उपर दूसरा पत्थर भी न रहेगा जो ढ़ाया न जायेगा।

और विरोधियों से लड़ने की जो पद्धति गांधी बताते हैं और जिसकी खिल्ली उड़ाई जाती है, वे ईसा के ही शब्द हैं। आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत की जगह वे कहते हैं, ‘‘जो तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे, उसकी ओर दूसरा भी फेर देा।’’

अब आप ईसा के इन शब्दों की व्याख्या कैसे करेंगे?

‘‘यह मत सोचों की मैं पृथ्वी पर मेल करवाने आया हूं। मैं मेल करवाने नहीं, तलवार चलवाने आया हूं।’’

ये शब्द किसी निरे धार्मिक नेता का नहीं, व्यवस्था को बदलने वाले किसी आदि विद्रोही का ही हो सकता है। लेकिन बुराई और शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ उनके संघर्ष का तरीका उनका अपना था।

उन्होंने बिना किसी खौफ के सत्ता को चुनौती दी और अपने लिए सबसे अधिक यातनादायक मृत्यु का मार्ग चुना। उन्हें कोड़ों से पीटा गया। कांटों का ताज पहनाया गया। अपना सलीब उनसे खुद ढ़ुलवाया गया। और न सिर्फ रोमन साम्राज्य के कारिंदे, बल्कि यहूदी जनता के भी एक बड़े हिस्से ने उनका उपहास उड़ाया।

लेकिन उनकी इस दारुण मृत्यु ने उनके समर्थकों और अनुयायियों के भीतर विक्षोभ की वह अग्नि जलायी जिसने अपने समय के सबसे शक्तिशाली रोमन साम्राज्य को जड़ से उखाड़ फेंका।

और भविष्य को देखने की उनकी तीव्र दृष्टि।

‘‘तुम लड़ाईयों की चर्चा और लड़ाईयों की अफवाहें सुनोगे। देखो, भयभीत न होना, क्योंकि इनका होना अवश्य है। परंतु उस समय अंत न होगा। क्योंकि जाति जाति के विरुद्ध और राज्य राज्य के विरुद्ध उठ खड़े होंगे और बहुत से स्थलों पर अकाल पड़ेंगे और भूकंप आयेंगे। परंतु ये सब बातें तो पीड़ाओं का आरंभ ही होगी।’’

नेहरु ने उनके बारे में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक विश्व इतिहास की झलक में लिखा है - ‘‘उनकी बातें रूपकों और कहानियों के तौर पर होती थीं, लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वह जन्म से ही विद्रोही थे, और जमाने की हालत को सह नहीं सकते थे और उसे बदलने पर तुले थे। यह वह बात न थी जो यहूदी चाहते थे। इसलिए उनमें से बहुत से लोग उनके खिलाफ हो गये और उनको पकड़ कर रोमन अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया।’’

और अंत में एक बात। ईसा मसीह को उनके अनुयायी परमेश्वर का पुत्र बताते हैं लेकिन उन्होंने खुद को कई स्थलों पर मनुष्य का पुत्र कहा। अपनी गिरफ्तारी के पहले उन्होंने अपने शिष्यों से कहा: तुम जानते हो कि दो दिन के पश्चात फसह का पर्व आ रहा है और मनुष्य का पुत्र क्रूस पर चढ़ाये जाने के लिए पकड़वाया जायेगा।’’

    विनोद कुमार

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